उत्तर प्रदेशसीतापुर

आंगनबाड़ी भर्ती घोटाला: जनपद सीतापुर में संघर्ष बनाम सत्ता की साज़िश

एक बार फिर जिला मुख्यालय पर आंगनबाड़ी आवेदिकाओं का शांतिपूर्ण धरना

भाजपा कार्यकर्ता पुष्पेंद्र प्रताप सिंह आमरण अनशन पर बैठे।

ब्यूरो रिपोर्ट -अनूप पाण्डेय

सीतापुर। जनपद सीतापुर इन दिनों एक बार फिर प्रशासनिक लापरवाही, राजनीतिक उदासीनता और जनआक्रोश का केंद्र बन चुका है। बहुचर्चित आंगनबाड़ी भर्ती घोटाले ने जिले की व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं। लगभग 15 करोड़ रुपये के इस कथित घोटाले ने जहां शासन-प्रशासन की निष्पक्षता को कठघरे में खड़ा किया है, वहीं हजारों बेरोजगार युवतियों के भविष्य को भी अनिश्चितता के गर्त में धकेल दिया है। इस भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं भाजपा सीतापुर के सक्रिय कार्यकर्ता व सामाजिक चिंतक पुष्पेंद्र प्रताप सिंह। सोमवार को उन्होंने एक बार फिर आमरण अनशन का रास्ता चुना। जैसे ही वे अपने घर से धरना स्थल की ओर निकले, पुलिस ने उन्हें रोकने का प्रयास किया। किंतु महिला आवेदिकाओं के बढ़ते हुजूम और दृढ़ समर्थन के बीच वे किसी प्रकार विकास भवन पहुंचे और संविधान की प्रति हाथ में लेकर अनशन पर बैठ गए। उनके साथ सैकड़ों महिला आवेदिकाएं भी शांतिपूर्ण भूख हड़ताल में शामिल हुईं।

पुष्पेंद्र प्रताप सिंह इससे पूर्व 17 अप्रैल को भी आमरण अनशन पर बैठे थे। उस समय प्रशासन ने एक सप्ताह का समय मांगते हुए समाधान का वादा किया था, लेकिन वह वादा आज तक अधूरा है। इस कारण आवेदिकाओं में आक्रोश और अविश्वास का माहौल व्याप्त है।

घोटाले की गंभीरता इस बात से स्पष्ट है कि सीडीपीओ, डीपीओ, सीडीओ से लेकर जिलाधिकारी तक की भूमिका संदिग्ध बताई जा रही है। सोशल मीडिया पर वायरल हो रही वीडियो और फोटो क्लिपिंग में यह आरोप उभर कर सामने आया है कि सीडीपीओ सिधौली हेमा शुक्ला के कार्यालय में नव नियुक्त कर्मियों से जबरन प्रार्थना पत्र लिखवाए गए, ताकि आंदोलन को बदनाम किया जा सके। वहीं एक अन्य वीडियो में रिश्वत लेन-देन के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री कौशल किशोर और मिश्रिख सांसद अशोक रावत पहले ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र भेजकर मामले की उच्चस्तरीय जांच की मांग कर चुके हैं। बावजूद इसके, अब तक न किसी अधिकारी पर कार्रवाई हुई, न ही आवेदिकाओं को न्याय मिला है। यह प्रशासनिक निष्क्रियता, जनाकांक्षाओं के साथ सीधा विश्वासघात प्रतीत होता है। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के विरुद्ध शांतिपूर्ण विरोध करना भी सत्ता को असहज करता है? क्या न्याय की मांग करना भी साज़िश मान लिया जाता है? यह आंदोलन अब महज एक भर्ती प्रक्रिया तक सीमित नहीं, बल्कि व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए एक बड़ा प्रतीक बन चुका है।

देखना होगा कि पुष्पेंद्र प्रताप सिंह और उनकी संघर्षशील टीम की यह लड़ाई जनसत्ता की दिशा बदलेगी या फिर सत्तासीन चुप्पी के अंधकार में एक और सच्चाई दम तोड़ देगी।

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